तुम हिज्र के झगड़ों को मिटा क्यों नहीं देते बिगड़ी हुई तक़दीर बना क्यों नहीं देते दर्द-ए-दिल-ए-बेताब घटा क्यों नहीं देते महफ़िल से रक़ीबों को उठा क्यों नहीं देते क्यों है ख़फ़गी किस लिए माथे पे शिकन है तक़्सीर मिरी आप बता क्यों नहीं देते तुम से जो किया करते हैं हर-वक़्त दग़ाएँ ऐ हज़रत-ए-दिल उन को दुआ क्यों नहीं देते मजबूर हूँ मैं कश्मकश-ए-रंज-ओ-अलम में तुम आ के मिरी जान छुड़ा क्यों नहीं देते तंग आए हैं हम-साया जो फ़रियाद से मेरी उस शोख़ फ़ुसूँ-गर को बुला क्यों नहीं देते इक बोसा-ए-रुख़्सार का मुद्दत से हूँ साइल हैं आप अगर अहल-ए-सख़ा क्यों नहीं देते वो पूछते फिरते हैं कि मैं किस को मिटाऊँ तुर्बत को मिरी लोग बता क्यों नहीं देते मरता हूँ मैं तुम पर जो कहा उन से तो बोले ये सच है तो फिर मर के दिखा क्यों नहीं देते वो तज़्किरा-ए-सदमा-ए-हिज्राँ पे शब-ए-वस्ल बोले कि उसे दिल से भुला क्यों नहीं देते जब मैं ने कहा तुम से हसीं और बहुत हैं किस नाज़ से बोले कि दिखा क्यों नहीं देते क्यों क़त्ल की पुर्सिश पे सर-ए-हश्र हो ख़ामोश इल्ज़ाम रक़ीबों पे लगा क्यों नहीं देते है 'नश्तर'-ए-नाशाद झुकाए हुए सर को तुम जौहर-ए-शमशीर दिखा क्यों नहीं देते