तुम हो जहाँ के शायद मैं भी वहाँ रहा हूँ कुछ तुम भी भूलते हो कुछ मैं भी भूलता हूँ मिटता भी जा रहा हूँ पूरा भी हो रहा हूँ मैं किस की आरज़ू हूँ मैं किस का मुद्दआ' हूँ मंज़िल की यूँ तो मुझ को कोई ख़बर नहीं है दिल में किसी तरफ़ को कुछ सोचता चला हूँ लेती हैं उल्टी साँसें जब शाम-ए-ग़म फ़ज़ाएँ उस दम फ़ना-बक़ा की मैं नब्ज़ देखता हूँ हूँ वो शुआ-ए-फ़र्दा जो आँख मल रही है वो सुर्मगीं उफ़ुक़ पर मैं थरथरा रहा हूँ जिस से शजर-हजर में इक रूह दौड़ जाए वो साज़-ए-सरमदी मैं ग़ज़लों में छेड़ता हूँ