तुम जल्वा दिखाओ तो ज़रा पर्दा-ए-दर से हम थक गए नज़्ज़ारा-ए-ख़ुरशीद-ओ-क़मर से मजबूर-ए-नुमाइश नहीं कुछ हुस्न ही उन का हम भी तो हैं मजबूर तक़ाज़ा-ए-नज़र से बछड़ा हुआ जैसे कोई मिलते ही लिपट जाए यूँ तीर तिरा आ के लिपटता है जिगर से कटते नहीं क्यूँ शाम-ए-जुदाई के ये लम्हे मिलती नहीं क्यूँ ज़ुल्मत-ए-शब जा के सहर से करना है किसी दिन उसे हम-दोश-ए-सुरय्या है आह अभी तक मिरी महरूम असर से हो जाएँ हमेशा के लिए आप जो मेरे मैं माँग लूँ कुछ उम्र यहाँ उम्र-ए-ख़िज़र से ऐसा तो न कर पाएगा कोई भी फ़ुसूँ-कार वो कर गए जो सादगी-ए-हुस्न-ए-नज़र से आसूदा-ए-मंज़िल नहीं आगाह-ए-सऊबत महरूम है वो लज़्ज़त-ए-दूरी-ए-सफ़र से