तुम तो कहते थे कि झगड़े में हुआ कुछ भी नहीं मैं ने देखा है कि बस्ती में रहा कुछ भी नहीं ख़िर्मन-ए-होश-ओ-ख़िरद जल गए इंसानों के उन का दावा है फ़सादों में जला कुछ भी नहीं उफ़ वो हालात से सहमी हुई बेबस लड़की सर झुकाए हुए कहती है लुटा कुछ भी नहीं मस्लहत-कोशी की क़ैंची जो चली ख़बरों पर शाए अख़बार हुए उन में छुपा कुछ भी नहीं इस लिए हो गई ज़रख़ेज़ जराएम की ज़मीं मुजरिमों के लिए दुनिया में सज़ा कुछ भी नहीं जो ये कहते हैं अहिंसा की ज़मीं है भारत उन की आँखों में तो सपनों के सिवा कुछ भी नहीं अब हसीं चेहरों पे मिलती है तसन्नो की नक़ाब ग़म्ज़ा-ओ-इश्वा-ओ-अंदाज़-ओ-अदा कुछ भी नहीं ऐसा बदला है ज़माने का चलन ऐ हमदम प्यार नापैद हुआ मेह्र-ओ-वफ़ा कुछ भी नहीं जाने क्यों तीर-ए-सितम चलते हैं हम पर 'बेबाक' अपना मस्लक तो मोहब्बत के सिवा कुछ भी नहीं