तुम्हारा हिज्र मनाया तो मैं अकेला था जुनूँ ने हश्र उठाया तो मैं अकेला था ये मेरी अपनी दुआएँ जिन्हों ने रद्द हो कर गले से मुझ को लगाया तो मैं अकेला था दयार-ए-ख़्वाब था तुम थे तमाम दुनिया थी किसी ने आ के जगाया तो मैं अकेला था कोई हुसैनी न निकला मिरे रफ़ीक़ों में दिया बुझा के जलाया तो मैं अकेला था तुम्हारा हाथ नहीं था वो मौज-ए-गिर्या थी मिरी समझ में जब आया तो मैं अकेला था तुम्हारे लम्स की ख़ुशबू फ़रेब निकली है बदन ने हश्र उठाया तो मैं अकेला था कहाँ से आई थी आख़िर तिरी तलब मुझ में ख़ुदा ने मुझ को बनाया तो मैं अकेला था