तुम्हारी याद मिरे दिल में जब कभी आई गुमाँ हुआ कि अंधेरे में रौशनी आई जहान-ए-दिल में उसी दिन से इंक़लाब आया मिज़ाज-ए-हुस्न में जिस दिन से बरहमी आई जो तुम गए तो मुझे ज़ुल्मतों ने घेर लिया न आफ़्ताब ही निकला न चाँदनी आई न मुल्तफ़ित हुए तेरी नज़र के मारे हुए सँवर सँवर के कई बार ज़िंदगी आई चमन में चार तरफ़ ज़ुल्मतों के डेरे थे जला हमारा नशेमन तो रौशनी आई मिरे फ़साना-ए-ग़म पर मिरी तबाही पर वो ख़ुश रहें जिन्हें बे-साख़्ता हँसी आई अजब मुअ'म्मा है 'मूसा' तज़ाद-ए-आलम-ए-इश्क़ ज़माना रोने लगा और मुझे हँसी आई