तुम्हारा ग़म न हो तो ज़िंदगी अच्छी नहीं लगती ख़मोशी से बहे जो वो नदी अच्छी नहीं लगती पड़े हो इश्क़ में तो इश्क़ की तहज़ीब भी सीखो किसी आशिक़ के चेहरे पर हँसी अच्छी नहीं लगती ये मन करता है बादल आ के ढक लें चाँद को पूरा हों जब वो पास तो फिर चाँदनी अच्छी नहीं लगती कहा उस ने हमें कब वस्ल से इंकार है लेकिन ख़लिश सीने में उस के बा'द की अच्छी नहीं लगती अजब है बात हैरत की हमारी शक्ल ये उन को कभी लगती है अच्छी और कभी अच्छी नहीं लगती लिखी हैं सारी ग़ज़लें बस उसी के वास्ते मैं ने वही हाँ वो ही जिस को शाइ'री अच्छी नहीं लगती