तुम्हारा क़ुर्ब वजह-ए-इज़्तिराब-ए-दिल न बन जाए ये मुश्किल सहल हो कर फिर कहीं मुश्किल न बन जाए अरे ओ तिश्ना-लब ये प्यास ये अंदाज़ पीने का समुंदर घटते घटते दूर तक साहिल न बन जाए ये मश्कूक आदमी लूटे हैं जिस ने कारवाँ बरसों दुआ माँगूँ कहीं ये रहबर-ए-मंज़िल न बन जाए चला तो हूँ तिरा बख़्शा हुआ ज़ौक़-ए-तलब ले कर ख़याल इस का रहे ये सई-ए-ला-हासिल न बन जाए जिसे मेरी मोहब्बत ने सरापा लुत्फ़ समझा है किसी रुख़ से वही इंसाँ मिरा क़ातिल न बन जाए नज़र अपनी रहे उस वक़्त तक मम्नून-ए-नज़्ज़ारा दिल-ए-जल्वा-तलब जब तक मह-ए-कामिल न बन जाए किसी को 'रम्ज़' मज़लूमी के इस एहसास ने मारा वो अपनों की नज़र में रहम के क़ाबिल न बन जाए