तुम्हारे देखने को हसरत-ए-हैरत-फ़ज़ा ठहरी दिल-ए-महज़ूँ से निकली दीदा-ए-बिस्मिल में आ ठहरी तसव्वुर यार का था सामने आती क़ज़ा क्यूँ कर सर-ए-बालीं दम-ए-मुर्दन ब-शक्ल-ए-दिल-रुबा ठहरी झुकाया बार-ए-इस्याँ ने हमारे दस्त-ए-हसरत को पहुँच कर ता-ब-लब जिस की नदामत से दुआ ठहरी तुम्हारी जुम्बिश-ए-अबरू से घायल हो गए आशिक़ बन आई जान पर उन की तुम्हारी इक अदा ठहरी उसी अंदाज़ ने वीराँ किया है मेरे पहलू को दिल-ए-आशिक़ के लेने को इन आँखों में ज़िया ठहरी सबा के तेज़ झोंकों ने फिराया दर-ब-दर उस को ज़मीं पर चैन से किस दम ये ख़ाक-ए-मुब्तला ठहरी जलाया मुस्कुरा कर और अदा से कर दिया मुर्दा कहीं तो ये जफ़ा ठहरी किसी जा पर वफ़ा ठहरी बसान-ए-ख़ून-ए-दिल चस्पाँ हुई है तेरे तलवों से हमारी दुश्मन-ए-जाँ अब ये शोख़ी-ए-ज़िया ठहरी इलाही क्या मिरे दिलबर ने खोला अपने गेसू को मशाम-ए-जाँ में अपने आ के बू-ए-जाँ-फ़िज़ा ठहरी तुम्हारी बद-दुआ' से लुत्फ़ मिलता है मिरे दिल को मैं आशिक़ हूँ तुम्हारा वो मिरे हक़ में दुआ ठहरी फ़रिश्तों ने पुकारा ऐ 'जमीला' जल्द हाज़िर हो ख़ुदा के रू-ब-रू आ कर सफ़-ए-अहल-ए-सफ़ा ठहरी