तुम्हारे ग़म को ग़म-ए-जाँ बना लिया मैं ने कि जंगलों को गुलों से सजा दिया मैं ने न जाने कितनी उमीदें लहू लहू कर के दिल-ए-तबाह को जीना सिखा दिया मैं ने सबब हो कुछ भी उन्हें रूठने की आदत है ये सोचना ही ग़लत है कि क्या किया मैं ने हर एक बात मिरे हक़ में थी मगर फिर भी जो फ़ैसला था बहुत सोच कर किया मैं ने उसे न भूल सका हूँ न भूल पाऊँगा ये तजरबा तो कई बार कर लिया मैं ने तिरे बग़ैर मिरी प्यास बुझ नहीं पाई हमेशा याद किया तुझ को साक़िया मैं ने मिरी भी ख़ामुशी देखी नहीं गई उन से किसी का ज़ब्त-ए-सुख़न आज़मा लिया मैं ने इलाज सोज़-ए-दरूँ का न हो सका फिर भी 'सहर' ब-नाम-ए-दवा ज़हर भी पिया मैं ने