तुम्हारे हिज्र में रहता है हम को ग़म मियाँ-साहिब ख़ुदा जाने जिएँगे या मरेंगे हम मियाँ-साहिब अगर बोसा न देना था कहा होता नहीं देता तुम इतनी बात से होते हो क्या बरहम मियाँ-साहिब ख़ता कुछ हम ने की या ग़ैर है शायद तुम्हें माने सबब क्या है कि तुम आते हो अब कुछ कम मियाँ-साहिब अगर तू शोहरा-ए-आफ़ाक़ है तो तेरे बंदों में हमें भी जानता है ख़ूब इक आलम मियाँ-साहिब तुम्हारे इश्क़ से 'ताबाँ' हुआ है शहर में रुस्वा तुम उस के हाल से अब तक नहीं महरम मियाँ-साहिब