तुम्हारे होंट जिन के ज़िक्र की गर्मी से जलते हैं हमारे जैसे दीवाने उन्हीं राहों पे चलते हैं जिन्हें क़िर्तास पर लाऊँ तो इक हंगामा हो जाए शब-ए-तन्हाई में अक्सर कुछ ऐसे शे'र ढलते हैं बताओ चैन से कैसे रहें हम ऐसी वादी में जहाँ गुलशन के रखवाले ही कलियों को मसलते हैं तिरे आगे न अपना सर झुकाएँ तो कहाँ जाएँ कि हम रोज़-ए-अज़ल से ही तिरे टुकड़ों पे पलते हैं मचल जाता है दिल वैसे ही तुम को देखने के बाद खिलौना देख कर जिस तरह से बच्चे मचलते हैं पहुँचती है मक़ाम-ए-इंतिहा पर बंदगी जिस दम हमारे पाँव की ठोकर से भी चश्मे उबलते हैं तुम्हारी रहबरी क़ाएम रहेगी फिर भी ऐ 'रहबर' निकल जाने दो कुछ लोगों को गर आगे निकलते हैं