तुम्हारी जुस्तुजू की है वहाँ तक नहीं पहुँचे जहाँ वहम-ओ-गुमाँ तक जो रिश्ते थे हमारे दरमियाँ तक वो ले आए हमें अब इम्तिहाँ तक मोहब्बत में मक़ाम आया है कैसा अयाँ होने को है राज़-ए-निहाँ तक नहीं मिलता तिरा सानी कहीं भी नज़र पहुँची है अपनी कहकशाँ तक पलट कर जब कभी देखा तो समझा कहाँ से आ गए हैं हम कहाँ तक सँभल कर बात कीजे शैख़-जी से रसाई उन की है पीर-ए-मुग़ाँ तक टटोला है उन्हों ने दिल को अक्सर मगर पहुँचे नहीं दर्द-ए-निहाँ तक नज़र आता है बस जल्वा उसी का पहुँचती है नज़र अपनी जहाँ तक ये फ़स्ल-ए-गुल ये बुलबुल की असीरी हैं फ़रियादी क़फ़स की तितलियाँ तक यक़ीनन क़ाबिल-ए-अज़मत है 'ग़ाज़ी' न उफ़ की सुन के उस ने गालियाँ तक