तुम्हें ऐसा बे-रहम जाना न था ग़रज़ क्या कहें दिल लगाना न था अगर उस गली से निकलते तो फिर दो आलम में अपना ठिकाना न था लिया इम्तिहान-ए-वफ़ा ही में जी हमें याँ तलक आज़माना न था वो था कौन सा तेरा तीर-ए-सितम कि मैं आह उस का निशाना न था किया किस की आँखों ने 'रासिख़' पे सेहर वो आगे तो ऐसा दिवाना न था