तुम्हें क्या काम नालों से तुम्हें क्या काम आहों से छुपाया हो गुनाह-ए-इश्क़ तो पूछो गवाहों से मैं कजकोल-ए-दिल-ए-बे-मुद्दआ ले कर कहाँ जाऊँ ये पैग़ाम-ए-तलब क्यूँ ऊँची ऊँची बारगाहों से ज़बाँ हो एक उल्फ़त की तो मुमकिन है ज़बाँ-बंदी हुइ जो बात चुपके की वो कह डाली निगाहों से मोहब्बत अंदर अंदर ज़ीस्त का नक़्शा पलटती है यही चलती हुइ साँसें बदल जाएँगी आहों से सनद बे-ऐत्मादी की है क़ब्ल-ए-इम्तिहाँ गोया बयान-ए-हाल कै पहले हलफ़ लेना गवाहों से मोहब्बत नेक-ओ-बद को सोचने दे ग़ैर मुमकिन है बढ़ी जब बे-ख़ुदी फिर कौन डरता है गुनाहों से हुए जब आप से बाहर फिर एहसास-ए-दुई कैसा पता मंज़िल का मिलता है इन्हीं गुम-कर्दा राहों से बता सकती नहीं रोईदगी-ए-सब्ज़ा-ओ-गुल भी फ़क़ीरों से पटे थे ये गढ़े या बादशाहों से छलकते ज़र्फ़ का खुलता भरम खोता है बात अपनी सुकूँ पाता है दिल का दर्द नालों से न आहों से ये पहले सोच लें आँखों में लहराते हुए आँसू कि वो फिर उठ भी सकते हैं जो गिर जाएँ निगाहों से मिला बैठा है सब में कुछ मगर मुँह से नहीं कहता अलग समझो तुम अपने 'आरज़ू' को दाद-ख़्वाहों से