टूट के बादल फिर बरसा है हाए वो जिस का घर कच्चा है क्यूँ नहीं उठते पाँव हमारे जब ये रस्ता घर ही का है मैं ने भी कुछ हाल न पूछा वो भी कुछ चुप-चुप सा रहा है मंज़िल मंज़िल दीप जले हैं फिर भी कितना अँधियारा है दिल में उठा कर रख लेता हूँ पाँव में जो काँटा चुभता है अब तो ये भी भूल गया हूँ मेरा अपना इक चेहरा है 'शबनम' से क्या प्यास बुझेगी जब ख़ुद दरिया भी प्यासा है