टूटे हुए ख़्वाबों के तलबगार भी आए ऐ जिंस-ए-गिराँ तेरे ख़रीदार भी आए मुद्दत हुई सुनते हुए तम्हीद-ए-तिलिस्मात अब क़िस्से में आगे कोई किरदार भी आए क्या ख़त्म न होगी कभी सहरा की हुकूमत रस्ते में कहीं तो दर-ओ-दीवार भी आए अब जिस के असर में है ये वीरान हवेली वो साया कभी तो पस-ए-दीवार भी आए फिर शहर में अय्याम-ए-गुज़िश्ता की उड़ी राख फिर ज़द में कई जुब्बा-ओ-दस्तार भी आए पहले तो सभी तेरे सरापा में हुए गुम फिर ज़िक्र में आगे तिरे अतवार भी आए