उभर रही है किरन सुब्ह-ए-ज़ू-फ़िशाँ के लिए सँवर रही है फ़ज़ा हुस्न-ए-गुलिस्ताँ के लिए मिरी फ़सुर्दा उम्मीदों को कर दिया ख़ंदाँ ये इल्तिफ़ात-ए-नज़र इक शिकस्ता जाँ के लिए ख़ुदा के दर पे तो सज्दा-कुनाँ है इक दुनिया मिरी जबीं है फ़क़त तेरे आस्ताँ के लिए तिरे हुज़ूर में आया तो खो गया ऐसा ज़बान खुल न सकी अर्ज़-ए-दास्ताँ के लिए उन्हें शिकस्त-ए-मोहब्बत का ख़ौफ़ क्या 'अख़्गर' कफ़न-बदोश जो निकले हैं इम्तिहाँ के लिए