उभरे जो ख़ाक से वो तह-ए-ख़ाक हो गए सब पाइमाल-ए-गर्दिश-ए-अफ़्लाक हो गए रखती थी लाग मेरे गरेबाँ से नौ-बहार दामन गुलों के बाग़ में क्यूँ चाक हो गए थे दीदा-हा-ए-ख़ुश्क मोहब्बत की आबरू कम-बख़्त उन के सामने नमनाक हो गए ऐसा भी क्या मिज़ाज क़यामत का दिन है आज पेश-ए-ख़ुदा तुम और भी बेबाक हो गए आते ही बज़्म-ए-वाज़ से चलते बने 'हफ़ीज़' दो हर्फ़ सुन के साहिब-ए-इदराक हो गए