उदासी के मंज़र मकानों में हैं अँधेरे अभी आशियानों में हैं मोहब्बत को मौसम ने आवाज़ दी दिलों की पतंगें उड़ानों में हैं ज़बाँ वाले भी काश समझें कभी वो दुख दर्द जो बे-ज़बानों में हैं परिंदों की पर्वाज़ क़ाएम रहे कई ख़्वाब शामिल उड़ानों में हैं कहाँ मंज़िलें गुम पता ही नहीं निगाहें मगर आसमानों में हैं घरों में हैं महरूमियों के निशाँ कि अब रौनक़ें बस दुकानों में हैं