उफ़ वो इक हर्फ़-ए-तमन्ना जो हमारे दिल में था एक तूफ़ाँ था कि बरसों हसरत-ए-साहिल में था रफ़्ता रफ़्ता हर तमाशा आँसुओं में ढल गया जाने क्या आँखों ने देखा और क्या मंज़िल में था दास्तान-ए-ग़म से लाखों दास्तानें बन गई फिर भी वो इक राज़-ए-सर-बस्ता रहा जो दिल में था चश्म-ए-साक़ी के अलावा जाम-ए-ख़ाली के सिवा कौन अपना आश्ना अग़्यार की महफ़िल में था मेरे अरमानों का मरकज़ मेरे दर्दों का इलाज टिमटिमाता सा दिया इक गोशा-ए-मंज़िल में था गुफ़्तुगू के ख़त्म हो जाने पर आया ये ख़याल जो ज़बाँ तक आ नहीं पाया वही तो दिल में था मिट गईं इमरोज़ ओ फ़र्दा की हज़ारों उलझनें जो सुकूँ तूफ़ाँ में पाया है वो कब साहिल में था