उफ़ुक़ पर कैसा बादल छा रहा है अंधेरा रौशनी को खा रहा है तलाश-ए-साया में फिर आओ निकलें तनावर पेड़ काटा जा रहा है ये मौज़ू-ए-सुख़न ठहरा है गोया घरों को कौन क्यूँकर ढा रहा है हदीस-ए-मौसम-ए-गुल क्या वो समझें जिन्हें ख़ूँ-रंग मंज़र भा रहा है दिल-ए-शाइ'र दिल-ए-दीवाना ठहरा हुजूम-ए-शौक़ में घबरा रहा है बरस जाए तो दुख की गिर्द बैठे जो टुकड़ा अब्र का मंडला रहा है