उजलत को इख़्तियार न कर इंतिज़ार कर ख़ुद पर जुनूँ सवार न कर इंतिज़ार कर ये इज़्तिरार ज़ोफ़-ए-जुनूँ की दलील है यूँ ख़ुद को बे-क़रार न कर इंतिज़ार कर माना कि शहर-ए-दिल की फ़सीलों में छेद हैं क़ाएम अभी हिसार न कर इंतिज़ार कर बेटा ये उम्र ताब तलब काटने की है इस कम-सिनी में प्यार न कर इंतिज़ार कर मुमकिन है शैख़-ए-जाँ की तजल्ली फ़रेब हो दुनिया-ओ-दीं निसार न कर इंतिज़ार कर होंगे ज़रूर ख़त्म ये दर्दों के सिलसिले दरिया-ए-सब्र पार न कर इंतिज़ार कर रज़्म-ए-वफ़ा में सह के दिखा तीर-ए-तंज़ को तेग़-ए-ज़बाँ से वार न कर इंतिज़ार कर कह कह के बार बार जुदाई की बात को तू और पाएदार न कर इंतिज़ार कर दश्त-ए-जुनूँ अभी है ग़ुबार-ए-हवास में यूँ शुतुर बे-महार न कर इंतिज़ार कर 'आज़ाद' हो गए हैं असीरान-ए-रास्ती अब दिल का ए'तिबार न कर इंतिज़ार कर