उमीदें तो वाबस्ता हैं अब्र-ए-तर से जो बरसे तो बरसे न बरसे न बरसे जहाँ क्या है और इस की रंगीनियाँ क्या ये पूछो किसी दीदा-ए-हक़-निगर से ज़बान ओ दहन से जो खुलते नहीं हैं वो खुल जाते हैं राज़ अक्सर नज़र से मिरा रास्ता कारवाँ से अलग है गुज़रना है इक मंज़िल-ए-पुर-ख़तर से ये है 'अम्न' इंसाँ की पस्ती सी पस्ती गुनह से बचा भी तो दोज़ख़ के डर से