उम्र काटी बुतों की आड़ों में बन के पत्थर रहा पहाड़ों में वो लड़ाई में बोल उठे मुझ से बात अच्छी बनी बिगाड़ों में दर्द-ए-सर के इलाज को वहशत खींच कर ले चली पहाड़ों में मस्तियाँ और बहार का मौसम मय की लज़्ज़त गुलाबी जाड़ों में दुख़्तर-ए-रज़ की शर्म तो देखो छुप गई जा के ख़ुम की आड़ों में तू ने पी ही नहीं है ऐ ज़ाहिद मय की गर्मी न पूछ जाड़ों में तेरे गेसू भी हो गए शामिल मेरी तक़दीर के बिगाड़ों में मर्ग-ए-दुश्मन पे मौत रोती है ये असर है तिरी पछाड़ों में उठते जोबन पे खुल पड़े गेसू आ के जोगी बसे पहाड़ों में वो गले से लिपट के सोते हैं आज-कल गर्मियाँ हैं जाड़ों में इश्क़ में जान पर बनी 'मुज़्तर' ज़िंदगी कट गई बिगाड़ों में