उम्र भर ज़ीस्त की महकार से बच बच के चला दिल जला रौनक़-ए-बाज़ार से बच बच के चला बे-सुलूकी ने बुराई में भी जड़ पकड़ी है क्यों रिया-कार रिया-कार से बच बच के चला इस क़दर अपने गुनाहों से अक़ीदत है मुझे उम्र भर साहब-ए-किरदार से बच बच के चला मेरी कुटिया में ज़िया-बार है बुझता सा दिया चाँद क्यों रौज़न-ए-दीवार से बच बच के चला आ गया वक़्त के आख़िर तो शिकंजे में भी वो लाख जो वक़्त की रफ़्तार से बच बच के चला सर पे दस्तार लिए फिरते हैं क़ामत से बुलंद मैं हर इक साहब-ए-दस्तार से बच बच के चला हौसला कैसे करे भाई वो बनने का कहार 'जान' चिड़ियों की जो चहकार से बच बच के चला