उम्र भर के ख़्वाब का हासिल समझ बैठे हैं लोग साया-ए-दीवार को मंज़िल समझ बैठे हैं लोग दश्त-ओ-दरिया से गुज़र हो या ख़लाओं का सफ़र अब भी आसाँ है मगर मुश्किल समझ बैठे हैं लोग किस नज़र से देखते हैं मुझ को सब मालूम है अपनी जानिब से मुझे ग़ाफ़िल समझ बैठे हैं लोग ज़िंदगी के एक इक पल की ख़बर रखता हूँ मैं बे-नियाज़-ए-हाल-ओ-मुस्तक़बिल समझ बैठे हैं लोग मौजा-ए-आफ़ात का रुख़ मोड़ने में ग़र्क़ हूँ मुझ को भी आसूदा-ए-साहिल समझ बैठे हैं लोग साज़िशी पर्दा पड़ा है झूट सच के दरमियाँ कौन क़ातिल है किसे क़ातिल समझ बैठे हैं लोग किस क़दर ज़ी-फ़हम हैं सब किस क़दर बालिग़-नज़र एक जुगनू को मह-ए-कामिल समझ बैठे हैं लोग जो गुज़रता है वो ठोकर मार देता है 'ज़फ़र' राह के पत्थर को मेरा दिल समझ बैठे हैं लोग