उन की संजीदगी से किब्र-ए-जहाँ टूट गया शर की पस्पाई हुई ज़ोर-ए-सिनाँ टूट गया बाग़ में छाते ही तारीक ख़िज़ाँ का मौसम चेहरा-ए-गुल से तबस्सुम का समाँ टूट गया उन के जल्वे की ज़रा देखो असर-अंगेज़ी उन की आमद हुई और शहर-ए-बुताँ टूट गया तुम तो ईक़ान की सीढ़ी पे चढ़ाने से रहे कैसे कहते हो कि इम्कान-ए-गुमाँ टूट गया कौन है इस का सबब आज मईशत है तबाह क्या हुआ आज तरक़्क़ी का निशाँ टूट गया क़ल्ब में तेरे रहे ख़्वेश-ओ-अक़ारिब का ग़म फ़िक्र करना न कभी अपना जहाँ टूट गया मुंतज़िर जिस के लिए 'ऐनी' रहा शौक़-ए-बहार वो हुआ जलवा-फ़िशाँ ज़ोर-ए-ख़िज़ाँ टूट गया