उन को दिमाग़-ए-पुर्सिश-ए-अहल-ए-मेहन कहाँ ये भी सही तो हम को मजाल-ए-सुख़न कहाँ इक बूँद है लहू की मगर बे-क़रार है दिल को छुपाए ज़ुल्फ़-ए-शिकन-दर-शिकन कहाँ तमकीन-ए-ख़ामुशी ने उन्हें बुत बना दिया सब इस गुमान में हैं कि उन के दहन कहाँ वो शाम-ए-वादा महव हैं आराइशों में और पहुँचा है ले के मुझ को मिरा सू-ए-ज़न कहाँ 'बेख़ुद' न क्यूँ हों दूरी-ए-उस्ताद है मलूल सोचो तो मारवाड़ कहाँ है दकन कहाँ