उर्यां ही रहे लाश ग़रीब-उल-वतनी में धब्बे मिरे इस्याँ के न आएँ कफ़नी में इक़रार पे भी मेरी तबीअत नहीं जमती वो लुत्फ़ मिला है तिरी पैमाँ-शिकनी में दिल टूट के जुड़ता नहीं शीशा हो तो जुड़ जाए है फ़र्क़ यही सोख़्तनी साख़्तनी में हसरत है मिरी आप की तस्वीर नहीं है इक चीज़ है रख ली है छुपा कर कफ़नी में हम भी कभी परियों में रहा करते थे 'शाइर' क्या देखते हो हम को ग़रीब-उल-वतनी में