उस के हर रंग से क्यूँ शोला-ज़नी होती है उन की तस्वीर तो काग़ज़ की बनी होती है अक़्ल ओ मज़हब की जब आपस में ठनी होती है फिर तो हर राह-बरी राहज़नी होती है याद आती है जब उन की निगह-ए-नाज़ मुझे एक बर्छी मिरे सीने पे तनी होती है किस तरह दूर हों आलाम-ए-ग़रीब-उल-वतनी ज़िंदगी ख़ुद भी ग़रीब-उल-वतनी होती है फल उसे आए न आए ये मुक़द्दर की है बात छाँव तो नख़्ल-ए-तमन्ना की घनी होती है शिकवे तौक़ीर-ए-मोहब्बत भी हुआ करते हैं मगर उस वक़्त जब आपस में बनी होती है मैं भी पीता हूँ मुझे इस से कुछ इंकार नहीं वो मगर दामन-ए-तक़्वा में छनी होती है ज़ब्त-ए-गिर्या से कहीं चाक न हो जाए जिगर बूँद आँसू की भी हीरे की कनी होती है इक तुम्हारी ही नज़ाकत है जो है तुम पे गिराँ वर्ना हर फूल में नाज़ुक-बदनी होती है इस क़दर ग़ैर है क्यूँ हाल तुम्हारा ऐ 'जोश' कभी दिल पर तो कभी दम पे बनी होती है