उस की यादों पे सदक़े हर बात बिखरती जाती है ज़िक्र किए जाता हूँ उस का रात गुज़रती जाती है वाक़िफ़ है हर फूल चमन का उस के बदन की ख़ुशबू से छू कर उस को बाद-ए-सबा भी आहें भरती जाती है खो जाते हैं चाँद सितारे उस की हुस्न-परस्ती में ज्यूँ ज्यूँ गहरी होती है शब और निखरती जाती है ख़्वाब अधूरे मातम करते हैं आँखों में पूरी शब दिल में यादों की कोई शमशीर उतरती जाती है शहर-ए-गुम-गश्ता की सड़कों पर कोई महफ़ूज़ नहीं ख़ामोशी भी अब इस जानिब डरती डरती जाती है बे-कस लम्हे आशुफ़्ता दिल और ये रंज-ओ-ग़म 'अंकित' जब्र-ए-मशीयत हिज्र के मआ'नी ज़ाहिर करती जाती है