उस को देखा था फ़क़त दो-चार लम्हों के लिए हो गए तन्हा जहाँ में कितनी सदियों के लिए रात का पिछ्ला पहर मुझ को बशारत दे गया आ रही है रौशनी तारीक गलियों के लिए कोई सी रुत हो सदा पाया है उन को सोगवार मौसमों का क़हर है मा'सूम पत्तों के लिए अब कोई चेहरा कोई मंज़र हमें रोकेगा क्या उठ चुके अपने क़दम पुर-पेच रस्तों के लिए एक गुल है तुझ को प्यारा एक गुल मुझ को अज़ीज़ कितने पागल हो गए हम लोग रंगों के लिए जिन का साया माओं की आग़ोश से कुछ कम न था क़त्ल के अहकाम हैं अब उन दरख़्तों के लिए अब नए पहलू से देखा चाहिए बाहर का रंग मुंतख़ब कीजे नई जगहें दरीचों के लिए ज़ात के तारीक ग़ारों में दरीचे खोलिए रास्ता कोई तो हो सूरज की किरनों के लिए कीजिए 'बेताब' रौशन अपनी पलकों पर दिए रौशनी दरकार है बे-नूर कमरों के लिए