उस को नग़्मों में समेटूँ तो बुका जाने है गिर्या-ए-शब को जो नग़्मे की सदा जाने है मैं तिरी आँखों में अपने लिए क्या क्या ढूँडूँ तू मिरे दर्द को कुछ मुझ से सिवा जाने है उस को रहने दो मिरे ज़ख़्मों का मरहम बन कर ख़ून-ए-दिल को जो मिरे रंग-ए-हिना जाने है मेरी महरूमी-ए-फ़ुर्क़त से उसे क्या लेना वो तो आहों को भी मानिंद-ए-सबा जाने है एक ही दिन में तिरे शहर की मस्मूम फ़ज़ा मेरे पैरहन-ए-सादा को रिया जाने है मैं कभी तेरे दरीचे में खिला फूल भी था आज क्या हूँ तिरे गुलशन की हवा जाने है मुझ से कहता है मिरा शोख़ कि इक़बाल-'मतीन' तुम रहे रात कहाँ ये तो ख़ुदा जाने है