उस ने क्यूँ सब से जुदा मेरी पज़ीराई की मस्लहत-कोश थी हर बात शनासाई की ज़ख़्म-ए-दिल हम ने सजाए तो इधर भी उस ने नाज़-ओ-अंदाज़ से जारी सितम-आराई की जिस्म तरशा हुआ साँचे में ढला है जैसे दस्त-ए-आज़र ने क़सम खाई हो सन्नाई की ऐसा सैराब किया उस ने कि ख़ुद तिश्ना-लबी इक सनद बन गई तारीख़ में सक़्क़ाई की शुक्र है ऐ शब-ए-हिज्राँ कि बड़ी मुद्दत पर हो गई दिल से मुलाक़ात भी बीनाई की शुक्रिया तुम ने बुझाया मिरी हस्ती का चराग़ तुम सज़ा-वार नहीं तुम ने तो अच्छाई की