उस ने निगाह-ए-लुत्फ़-ओ-करम बार बार की अब ख़ैरियत नहीं है दिल-ए-बे-क़रार की डर ये है खुल न जाए कहीं राज़-ए-इश्क़ भी निभने लगी है उन से मिरे राज़दार की सब के नसीब में है कहाँ मौज-ए-दर्द-ओ-ग़म मख़्सूस हैं इनायतें परवरदिगार की यादों की अंजुमन में उन्हें भी बुला लिया इक शाम यूँ भी हम ने बहुत यादगार की जब हम ही फ़स्ल-ए-गुल में चमन से निकल गए फिर क्यूँ सुना रहे हो कहानी बहार की 'ज़ाकिर' हम अपना दिल भी वहीं छोड़ आए हैं किस दर्जा पुर-कशिश थी फ़ज़ा उस दयार की