उस से क्या ख़ाक हम-नशीं बनती बात बिगड़ी हुई नहीं बनती वो बनी इब्तिदा-ए-उल्फ़त में दम पे जो वक़्त-ए-वापसीं बनती आदमी सब फ़रिश्ते बन जाते आसमाँ पर अगर ज़मीं बनती मेरी सूरत बनी तो ख़ाक बनी क़िस्मत ऐ सूरत-आफ़रीं बनती वादे करते ही क्या वो आ जाते रात भर ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं बनती काश सुनता न कोई शोर ओ फ़ुग़ाँ दिल की जा चश्म-ए-सुर्मगीं बनती तू ने ऐसे बिगाड़ डाले हैं एक की एक से नहीं बनती न चमकती जो हुस्न की तक़दीर क्यूँ तिरी चाँद सी जबीं बनती पारा-ए-जेब से मिरे ऐ काश दस्त-ए-वहशत की आस्तीं बनती बज़्म-ए-दुनिया थी क़ाबिल-ए-जन्नत ख़ूब बनती अगर यहीं बनती तब-ए-नाज़ुक का लुत्फ़ जब था 'दाग़' नाज़नीनों में नाज़नीं बनती