उस से रिश्ता था एक दो पल का और सालिम है ख़ौफ़ दिल दिल का कितने तूफ़ान जज़्ब करता है पेड़ फिर भी हरा है जंगले का आ गए बोरिया नशीनों में दिल मिरा हो गया है मख़मल का हर तरफ़ था नुशूर का आलम आ गए घर तो जी हुआ हल्का जब से आँखों में बुझ गए सपने फिर कभी अश्क भी नहीं छलका कोई मौसम हो वो बरस जाए एक टुकड़ा है शोख़ बादल का ये ज़माना 'निसार' है उस पर ख़ौफ़ जिस को नहीं है मक़्तल का