इक तअ'ल्लुक़ सा किसी नाम से जब होता है बे-सबब भी कोई जीने का सबब होता है बारहा सोचा मगर तुम को बता भी न सकी ग़म का एहसास मिरी रूह को कब होता है ढूँढता रहता है अक्सर मिरे अंदर तुझ को मेरी तन्हाई का आलम भी अजब होता है यूँ ब-ज़ाहिर सभी अंजान नज़र आते हैं जानते सब हैं कि इस शहर में सब होता है उठ गया जैसे ज़माने से मोहब्बत का चलन कौन अब किस के लिए ख़ंदा-ब-लब होता है लफ़्ज़ भी खोल नहीं पाते कभी लब अपने दूसरा नाम मोहब्बत का अदब होता है अपने आग़ाज़ से चलती हूँ मैं अंजाम की सम्त मेरी सुब्हों का सफ़र जानिब-ए-शब होता है किसी तिनके का सहारा नहीं मिलता मुझ को डूब जाना मिरी तक़दीर में जब होता है चंद बे-नाम से रिश्ते हैं लबों पर 'ऊषा' कोई दुनिया में किसी का भला कब होता है