उसी का दर्द है जिस के जिगर का लाशा है मैं जानता हूँ कि बाक़ी तो सब तमाशा है मैं क्या बताऊँ जो टूटा है मुझ पे ज़ुल्म-ओ-सितम मैं क्या लिखूँ कि मिरा दर्द बे-तहाशा है बुनी हैं साज़िशें मौसम ने धूप से मिल कर हवा ने मेरे हर इक फूल को ख़राशा है अमीर-ए-शहर मैं तुझ को तिरी दुहाई दूँ कि मेरा तोला भी तेरी नज़र में माशा है उजाड़ते हुए वो काँपता तो होगा 'ज़ुबैर' वो ख़्वाब हाथ नहीं ख़ून से तराशा है