उसी के ज़ुल्म से मैं हालत-ए-पनाह में था हर इक नफ़स मिरा जिस शख़्स की पनाह में था चमक रहा था वो ख़ुर्शीद-ए-दो-जहाँ की तरह वो हाथ जो कि गरेबान-ए-कज-कुलाह में था उफ़ुक़ उफ़ुक़ को पयाम-ए-सहर दिया मैं ने मिरा क़याम अगरचे शब-ए-सियाह में था महक रहे थे नज़र में गुलाब सपनों के खुली जो आँख तो देखा मैं क़त्ल-गाह में था मिरे हरीफ़ मुझे रौंद कर निकल न सके फ़सील-ए-संग की सूरत खड़ा मैं राह में था जो बात बात पे करता था इंक़लाब की बात सजी सलीब तो वो हामियान-ए-शाह में था अदू की फ़ौज ने लूटा तो क्या सितम ये है 'रईस'-ए-शहर भी शामिल इसी सिपाह में था