उसी ने हिजरतें कुछ और भी बिताई थीं वो शख़्स जिस के लिए कश्तियाँ जलाई थीं मिला था क्या तुम्हीं बोलो अज़ीम फंकारो मिरे क़लम ने तो गुम-नामियाँ कमाई थीं अभी तो हाथ में ही संग-पारे थे लेकिन सुकूत-ए-आब पे कितनी ख़राशें आई थीं उड़ा के बर्ग-ए-ख़िज़ाँ-दीदा की तरह इक रोज़ उसी ने पूछा था फिर आँधियाँ कब आई थीं किसी को क़िस्सा-ए-पाकी-ए-चश्म याद नहीं ये आँखें कौन सी बरसात में नहाई थीं तअल्लुक़ात में संजीदा मोड़ जब आए तो एहतियातें बहुत उस की याद आई थीं