उस के ख़त में जो लिखा ग़ैर का मैं नाम उल्टा लाया क़ासिद भी मुझे वाँ से तो पैग़ाम उल्टा हम मुसलमानों से याँ तक तो ये हिन्दू बर-अक्स कि कभी ख़त भी जो करते हैं तो अरक़ाम उल्टा न वो साक़ी न वो मय-नोश हैं मय-ख़ाने में अब तो रहता है सर-ए-ख़ुम पे धरा जाम उल्टा इक तो सीपारा-ए-दिल तुम ने किया है बरहम तिस पे फिर मुझ को ही तुम देते हो इल्ज़ाम उल्टा वाज़्गूनी जो तबीअत में फ़लक की है हनूज़ नज़र आता है ज़माना सहर ओ शाम उल्टा शब-ए-हिज्राँ की सियाही न हुई रोज़ सफ़ेद ये वरक़ तू ने न ऐ गर्दिश-ए-अय्याम उल्टा रसन-ए-दाम को सय्याद ने खींचा तो वहीं आन कर सर पे असीरों के गिरा दाम उल्टा 'मुसहफ़ी' तो अभी था अज़्म-ए-सफ़र पर तय्यार घर फिरा जाए है क्यूँ उस का सर-अंजाम उल्टा