ऊँट सब वापस फिरे आगे कोई सहरा न था नक़्श-ए-पा ही नक़्श-ए-पा थे दूर तक रस्ता न था अपने अंदर कितने मौसम और बाहर ज़र्दियाँ मैं फ़सील-ए-जिस्म में जब था तो यूँ फीका न था फिर खजूरों के दरख़्तों में धुआँ सा किस लिए आग जब तापी न थी और क़ाफ़िला ठहरा न था काग़ज़ी पोशाक में वो घर से जब बाहर गया आसमाँ पर अब्र बन कर मैं अभी बरसा न था हर तरफ़ बिखरी हुई रेग-ए-नदामत थी 'नज़र' जिस्म का चढ़ता हुआ दरिया मगर उतरा न था