उतना नज़दीक हुआ जितना उसे दूर किया फिर उसी शख़्स की नफ़रत मुझे मशहूर किया रत-जगा छोड़ मैं इस शर्त पे अब सोया था नींद के साथ तिरा ख़्वाब भी मंज़ूर किया ख़ामुशी सब्र की हिद्दत से पिघल सकती थी तेरी चौपाल के आदाब ने मजबूर किया तिश्नगी और बढ़ी जिस्म को जब ढाँपा गया आँख ने वक़्त की तमसील को मख़मूर किया मुझ मकाँ-दार को दर-पेश था मंज़िल का सुकूँ मेरी हिजरत ने तिरा रास्ता मख़तूर किया