उठ सुब्ह हुई मुर्ग़-ए-चमन नग़्मा-सरा देख नूर-ए-सहर-ओ-हुस्न-ए-गुल-ओ-लुत्फ़-ए-हवा देख दो-चार फ़रिश्तों पे बला आएगी ना-हक़ ऐ ग़ैरत-ए-नाहीद न हो नग़्मा-सरा देख मिन्नत से मनाते हैं मुझे मैं नहीं मनता औज़ा-ए-मलक देख और अतवार-ए-गदा देख गर बुल-हवसी यूँ तुझे बावर नहीं आती इक मर्तबा अग़्यार के क़ाबू में तू आ देख इतनी न बढ़ा पाकी-ए-दामाँ की हिकायत दामन को ज़रा देख ज़रा बंद-ए-क़बा देख इक दम के न मिलने पे नहीं मिलते हैं मुझ से ऐ 'शेफ़्ता' मायूसी-ए-उम्मीद-फ़ज़ा देख