उठती है अपने दिल से कुछ ऐसी ही हूक सी पड़ जाती जिस से दश्त में है एक कूक सी तस्वीरें देख बोली बदी-उल-जमाल यूँ सूरत कोई नहीं मिरे सैफ़-उल-मुलूक सी तक़्सीर हो मुआ'फ़ भला क्या ग़ज़ब हुआ गर आदमी से हो गई इक ऊक-चूक सी काली बला है कोई नहीं है शब-ए-फ़िराक़ सूरत-हराम रखती है एक मादा ख़ूक सी 'इंशा' ने जो शफ़क़ को सराहा तो बोले आप कम-बख़्त क्या बला है लहू के हुलूक सी