उठे तिरी महफ़िल से तो किस काम के उठ्ठे दिल थाम के बैठे थे जिगर थाम के उठ्ठे दम भर मिरे पहलू में उन्हें चैन कहाँ है बैठे कि बहाने से किसी काम के उठ्ठे उस बज़्म से उठ कर तो क़दम ही नहीं उठता घर सुब्ह को पहुँचे हैं कहीं शाम के उठ्ठे है रश्क कि ये भी कहीं शैदा न हों उस के तुर्बत से बहुत लोग मिरे नाम के उठ्ठे अफ़्साना-ए-हुस्न उस का है हर एक ज़बान पर पर्दे न कभी जिस के दर-ओ-बाम के उठ्ठे आग़ाज़-ए-मोहब्बत में मज़े दिल ने उड़ाए पूछे तो कोई रंज भी अंजाम के उठ्ठे दिल नज़्र में दे आए हम इक शोख़ को 'बेख़ुद' बाज़ार में जब दाम न इस जाम के उठ्ठे