उठी थीं आँधियाँ जिन को बुझाने वो शमएँ और भड़कें इस बहाने नक़ाबें बिजलियों की रुख़ पे डाले चमन वालों ने लौटे आशियाने ये क्यूँ वहशत से लपका दस्त-ए-गुल-चीं कली शायद लगी थी कुछ बताने अभी मौहूम है सज्दे का मफ़्हूम झुका फिर किस लिए सर कौन जाने शुऊर-ए-ज़िंदगी की ढाल ले कर चले हम मौत से आँखें मिलाने