उठिए तो कहाँ जाइए जो कुछ है यहीं है बाहर तिरे घर के तो न दुनिया है न दीं है हम हैं कि सर-ए-नक़्श-ए-क़दम सैकड़ों सज्दे वो है कि जहाँ देखिए बस चीं-ब-जबीं है सहरा में फिराती है मुझे ख़ाना-ख़राबी ये ढूँड रहा हूँ कि मिरा घर भी यहीं है आती नहीं नज़दीक ख़यालों के ये दुनिया वो बज़्म भी या रब कोई फ़िरदौस-ए-बरीं है ता हद्द-ए-तख़य्युल फ़क़त इक जल्वा है या दिल दुनिया में हमारी न फ़लक है न ज़मीं है जी भर के ज़रा देख तो लें हुस्न के जल्वे फिर किस को उन्हें छोड़ के जीने का यक़ीं है वो दर्द-ए-दरूँ जिस्म में यूँ फैल गया है पड़ता है जहाँ हाथ समझता हूँ यहीं है रहता हूँ 'सुहा' अहल-ए-हरम में भी नुमायाँ होते हैं इशारे ये ख़राबात-नशीं है